बुधवार, 25 मार्च 2009

बस की बेबस बालायेंः-
आजकल दिल्ली के किसी बस स्टाप पर खड़े होकर आप गौर से देखिए ,अधिकतर लड़कियां अपने-अपने मोबाइल पर व्यस्त दिखेंगी। एक भी फ्री नहीं दिखेगी। कोई हेडफोन को कान में लगाकर तो कोई फोन को कान पर चिपका कर वार्तालाप में मशगूल होगी। किससे बाते कर रही हैं समझ में नही आता क्योकि लड़के तो सारे फ्री खड़े होते हैं। कोई फोन पर चिपका नहीं दिखता।ये आधुनिक बालायें घर से निकलते ही फोन पर व्यस्त हो जाती हैं उससे(ब्यायफेन्ड) बातें करने में,बस स्टाप पर खड़ी होकर बात करती हैं । बात करते हुए बस में चढ़ जाती हैं,फिर भी बातें नहीं रूकती हैं बस तो जरूर रूकती है पर बातें नहीं पता नहीं कौन सी विदेश नीति फोन पर सुलझा रही है ,कहना बेहद मुश्किल है। बस में चढ़ते ही ये फौरन नजर दौड़ाती हैं अगर कोई जेन्टस लेडीज सीट पर बैठा दिख गया तो उसकी शामत आई समझो तुरन्त फरमान जारी कर देती हैं प्लीज लेडीज सीट,बेचार जेन्टस अगर कहीं न सुन पाया तो ये आधुनिक बालायें उस पर तुरन्त हांथ डाल देती हैं और उसके कंधे को झकझोर कर चिल्ला पड़ती हैं लेडीज सीट । जेन्टस को सीट से हटाकर और सीट के तल पर अपना धरातल स्थापित करके ऐसा गर्व महसूस करती हैं जैसे लक्ष्माबाई ने लार्ड डलहौजी को परास्त कर दिया हो । लेकिन मजे की बात ये है कि फिर भी फोन नहीं रुकता है। ये क्या बातें कर रही हैं क्या मजाल कि आप जरा भी समझ पाएं आपके कानों के पर्दे कितने ही तेज क्यों ना हो । बस मुह बराबर चल रहा है । बस से ज्यादा मुह चलायमान है। पर उनकी बातें सुन पाना हिमालय को दिया दिखाना है। पास में खड़ा हर लड़का बातें सुनने को आतुर दिखाई देता है लेकिन असफलता ही हांथ लगती है।वहीं बस में खड़े एक लड़के ने दूसरे से कहा यार ये कितना बैलेंस रखती हैं,या मोबाईल कंपनी ने यूं ही मोबाइल दे रखा है बतियाने के लिए । दूसरे लड़के ने कहा नहीं यार तुमको नहीं मालूम ये फोन नहीं करती हैं ये मिसकॉल करती हैं ,फोन तो उसने मिलाया है, इसने तो मिसकॉल की होगी। फोन तो उधर से गधेनाथ ने मिलाया होगा। जैसे ही सुबह घर से निकली आफिस के लिए बस तुरन्त गधेनाथ को एक मिसकॉल दाग दी और प्रेमातुर नाथ ने फोन मिला दिया । इस बीच अगर कहीं फोन इंगेज हुआ तो नाथ के दिल की धड़कने और तेज हो जाती हैं, कि आखिर दूसरा फोन कहां से आ गया ,किससे बातें करनी लगीं। लेकिन शायद नाथ को ये नहीं मालूम कि ये आधुनिक बालायें ,बालायें कम बलायें ज्यादा दिखती हैं। इनकी आदतें भैसों जैसी प्रतीत होती हैं ये जहां हरा-भरा चारा देखेंगी वहीं मुह मार लेंगी । इसको ये गलत भी नहीं मानती।कुछ मनचलों के लिए ये आधुनिक बालायें साक्षात फैशन टीवी होती हैं। कुछ की नजरों में एम टीवी होती हैं,और कुछ के लिए ये ऐसी टीवी होती हैं, जिनको परिवार के साथ बैठकर नहीं देखा जा सकता है। कुछ को देखकर ऐसा लगता है मानो सीधे रैंम्प पर जा रही हैं कौन सा कपड़ा कब फिसल जाए कुछ पता नहीं। इन बलाओं के दर्शन अक्सर दिल्ली की बसों में होते रहते हैं। बसों में ये रंग बिरंगी तितलियां खूब दिखाई देती हैं। कोई परकटी होती है। कोई उड़नपरी होती है। कोई नकचढ़ी होती है, कोई चुक चुकी होती है, कोई उतार पर होती है, तो कोई चढ़ाव पर होती है। कोई किसी पर मर चुकी होती है ,तो कोई किसी पर मर रही होती है ,कोई चढ़ने वाली होती है तो कोई उतरने वाली होती है। इनमें से कुछ को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि कुछ के कमर के ऊपर के कपड़े ऊपर की ओर छोटे होते जाते हैं और नीचे के कपड़े नीचे की ओर बीच के कटि प्रदेश में स्वच्छ और समतल मैदान साफ देखा जा सकता है कुछ लोगों को यहीं पर सौन्दर्य बोध होता है। तबतक बस स्टाप पर रूक चुकी होती है मैडम जी बस से बाहर जा रही हैं लेकिन बातें अब भी जारी हैं........
लेखक – विवेक वाजपेयी(मुसाफिर)
टीवी पत्रकार

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